Friday, April 9, 2010

टूटे हुए बिखरे हुए

वो गंध थी कुछ देहो की
और इस गर्मी का पसीना भी.

कुछ नमक, कुछ शहद बनकर
जबान तक रिस आए थे.

हम अपने-अपने जिस्म उतारकर
रुह को सूँघ रहे थे
हम रिश्ते बुन रहे थे.

वो गंध थी कुछ देहो की
इस गर्मी का पसीना भी
अब एक चुप्पी सी है
गहरा पसरा मौन भी.

वो गंध थी कुछ देहो की
इस गर्मी का पसीना भी .

2 comments:

  1. पसीना
    देह गन्ध
    शहद नमक पुती जबान
    गहरा पसरा मौन
    जिस्म उतार
    हम रूह सूँघ रहे थे
    रिश्ते बुन रहे थे
    चुप चाप।

    ReplyDelete
  2. गिरिजेश साहब के ब्लाग से आपके पास पहुचा हू.. कमाल की कविता है साहब..

    ReplyDelete