Friday, April 27, 2018

हम हो शीशे की परी हो, घर परीखाना रहे

हम हो शीशे की परी हो, घर परिखाना रहे,

कितना अच्छा होता रतन सेव भंडार से ढाई सो ग्राम गांठिये खरीदते और कांच के गिलास लेकर छत की गैलरी में बैठ जाते। संजू गचागच गिलास खाली कर देता और अपना पंडित यारबाश खारमंजन में ही खुश रहता।

किसी शाम नहाकर निकल जाते लंबे, बहुत लंबे कहीं। ... और फिर लौटते सिगरेट और लिपस्टिक की गंध के साथ। कोई रात ऐसी होती कि मोहल्ले के लड़कों के साथ अलाव तापते रातभर। अश्लील बातें करते, गप्प मारते, चुटकुले मारते। गालियां देते खूब नंग- धड़ंग। फिर अलाव की लौ में शुद्ध होकर कबीर के निर्गुणी हो जाते। एक दम हल्के। जैसे पात गिरे तरुवर से। मिलना बहुत दुलहरा। ना जाने किधर गिरेगा प्रज्ञा पवन का रेला। जग दर्शन का मेला।

मगर ये हो न सका ...  ये हो न सका मेरी हमनफस। हम भटकते हैं, बहुत भटक गए हैं, दश्त ओ सेहरा में। जिधर से भी गुजरते हैं, कबीर ताना मारते हैं। ग़ालिब हर गली में पकड़ के हमें झकझोर देते हैं। नस दबा देते हैं। बार- बार याद दिलाते हैं ... यूँ होता तो क्या होता। हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है, वो हर एक बात पर कहना के यूँ होता तो क्या होता।

दुनिया का हर आदमी अपनी जगह छोड़कर जी रहा है, बाजू वाली गली में। वो अपनी ही दुनिया को खाए जा रहा है। डसे जा रहा है खुद को। अपने ही सत्य में डूब गया आदमी। दुनिया उतनी ही देर सत्य है, जितनी देर उसके होने को ज़ाहिर नहीं किया गया हो। ध्यान रखकर ध्यान नहीं किया जा सकता, वो तो घटता है। घटना ही दुनिया है। अपने आप घटते रहना। बाहर घटते रहना, भीतर घटते रहना। हम घट कहाँ रहे, हम तो भटक रहे पूरे प्लान के साथ। शिड्यूल्ड। अपने ही सत्य में खोए, उलझे मूरख।

हम सब अपनी जगह छोड़कर जी रहे हैं। अपने- अपने सत्य में डूबे गले तक।

लेखक समझता है दुनिया सिर्फ लिखने पर खड़ी है। पेंटर का विश्वास है कि दुनिया ब्लू है। ग्रीन है, ग्रे और लाल-पीली भी। किसी सरकारी स्कूल का मास्टर अपनी पूरी जिंदगी ज्ञान से घनघोर भ्रमित रहता है। उधर कविता अपने ही घर मे भूखी मर रही है। पेंटर फांके मार रहे हैं। एक कवि के मरने पर दुनिया खत्म नहीं होती, दुनिया उसकी मृत्यु के बाद भी कायम है, और आगे भी चलती रहेगी। मसलन, पंचर बनाने वाले कारीगर की मौत के बाद भी दुनिया जारी रहेगी। दुनिया लेखक की बपौती नहीं और किसी मैकेनिक या बेलदार के भरोसे भी नहीं।

कपड़े सिलने वाले टेलर की जिंदगी में भी संगीत है। वो अपने पैरों से हारमोनियम बजाता है। उसकी सिलाई मशीन से भी सुर निकलते हैं। उसकी दुनिया में भी संगीत है।

दुनिया का कोई एक सत्य नहीं। दुनिया एक सार्वभौमिक सत्य है। बहुत सारे सत्य से मिलकर एक दुनिया बनती है। इस पूरे सार्वभौम में कहीं प्रेम है, पाप भी। धर्म भी है, पाखण्ड भी। कर्म है, प्रारब्ध भी। इच्छा है, अनासक्ति भी। षडयंत्र भी, मदद भी। एक भोग रहा है, एक भुगत रहा है। एक जीवन के लिए प्रार्थना करता है, दूसरे को इससे निजात चाहिए। जिस समय कोई एक व्यक्ति एक सौ आठ मनके की माला जप रहा होता है, ठीक उसी वक़्त कोई एक देह से खेल रहा होता है। जिस समय एक व्यक्ति प्रेम में है, ठीक उसी क्षण दूसरा बलात्कार कर रहा है। यहां धूप की सुगंध है तो पसीने की गंध से भी दुनिया चलती है। पुरुष स्त्री होना चाहता है, स्त्री को मर्द होना है। पूरी दुनिया वाइस अ वर्स है। अपनी जगह छोड़कर एक दूसरे के खिलाफ। समदरसी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो। प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो।

जिंदगी का लुत्फ़ है, उड़ती रहे हर दम 'रियाज़'
हम हो शीशे की परी हो, घर परी खाना रहे।

#औघटघाट

कास्टिंग काउच का पश्चाताप

जिंदगी में होने वाले कई फेरबदल आदमी के भाग्य या दुर्भाग्य पर निर्भर हैं। वहीं जिंदगी के अधिकतर परिणाम आदमी के लिए गए फैसलों पर निर्भर हैं। भाग्य और दुर्भाग्य मोटे तौर पर हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन ज्यादातर फैसलें लेना या नहीं लेना हमारे हाथ में हैं।

करीब दस साल पहले 'कास्टिंग काउच' शब्द काफी प्रचलन में था, जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने मध्य काल में था या इस काल में प्रवेश कर रहा था। अभी फिर से ट्रोल हुआ है। राजनीति और सिनेमा में अपने खास मक़ाम पर पहुँची दो स्त्रियों रेणूका चौधरी और सरोज खान ने यह शब्द दोहराया है। कास्टिंग काउच कितना सही है, कितना गलत, यह बहस तो बिल्कुल विवेकपूर्ण नहीं हो सकती। लेकिन इन दो स्त्रियों की स्वीकारोक्ति या बयानों से यह तो साफ हो ही गया कि राजनीति हो या सिनेमा, समाज की हर इमारत के नीचे एक गंदी गटर बह ही रही है।

सिनेमा की सरोज खान ने कहा कि 'कम से कम बॉलीवुड में कास्टिंग काउच के बदले लड़कियों को रोटी तो मिलती है'। ज़ाहिर है, सरोज खान को या उनके आसपास रहने वाली महत्वकांक्षी लड़कियों को कभी न कभी इससे गुजरना पड़ा होगा।

रेणूका चौधरी ने कहा कि 'राजनीति भी कास्टिंग काउच के धंधे से अछूती नहीं है'। यह उनका सेंट्रल या जनरलाइज्ड आयडिया है। इससे यह साफ होता है कि शायद उनके साथ तो कभी ऐसा नहीं हुआ होगा, लेकिन उनकी जानकारी में है कि दिल्ली समेत देश की राजधानियों में ऐसा अक्सर होता रहा है।

मध्यप्रदेश की खांटी दिवंगत नेता जमुना देवी ने तो कई साल पहले सरोज खान और रेणूका चौधरी से बहुत ज़्यादा सनसनीखेज बयान दिया था, इतना कि बयान से स्त्री की देह की खाल भी उतर गई थी। उस बयान को तो दोहराया भी नहीं जा सकता।

मसला यह है कि उम्र का आधा आंकड़ा बिता चुकी यह महिलाएं अब इस समय में यह बयान क्यों दे रही हैं। क्या यह जवानी के दिनों में किए गए अपने समझौतों की बुढ़ऊ खीज की तरह नहीं है ? या समझौतों की सीढ़ी के सहारे मिली सफलता के प्रति पश्चताप के बयान नहीं हैं ?

सुनिए, जब आप काम मांगने गईं होगी, तो देह सुख की कामना में सदियों से प्रतीक्षा कर रहे पुरुष ने अपनी बाहें खोलकर आपके सामने पसारी होगी। यह आपके निर्णय की घड़ी थी। तब आपके पास एक क्षण था, जिसमे आप उसकी बाहों को उसी तरह सूना छोड़कर उसकी ख़्वाबगाह से बाहर आ जाती, तुम चाहती तो एक धारदार चाकू से पुरुष की सफ़ेद चादर लहुलूहान कर आती। लेकिन ग्लैमर की गंध और राजनीति की महक तुम्हें उसकी बाहों में खींच ले गए। तुमने अपनी नश्वर और छद्म जिंदगी की चमक के बदले अपने चरित्र के अमूल्य कुछ मिनट उसको बेच दिए। यह दीगर बात है कि अब वो महक सड़ांध मारकर तुम्हें परीशां कर रही है।

मेरा यकीन है की स्त्री या किसी लड़की को उसकी इज़ाजत के बगैर दुनिया को कोई पुरुष छू नहीं सकता। इसके विपरीत कोई पुरूष ऐसा करता है तो फिर वह पुरुष नहीं, बलात्कारी है। एक, मर्ज़ी के खिलाफ संबंध बनाना अपराध है। दो, प्रेम के साथ बहती हुई नदी। फिर तीसरा हुआ समझौता। कास्टिंग काउच। जिसका फैसला लेना आपके हाथ में था। लेकिन आपने कोई फैसला नहीं लिया। न तो ना कहने का फैसला लिया और न पूरी तरह से हां कहने का फैसला लिया। और वह एक समझौते में तब्दील हो गया। वही समझौता उम्र बीतने के साथ पीड़ा हो गया, आत्मग्लानि हो गया।

... तुम्हे समझौते की आत्मग्लानि नहीं, फैसले की आज़ादी चुनना थी, क्योंकि फैसलें कभी आत्मग्लानि नहीं देते, उनमें पश्चाताप नहीं होता।

#औघटघाट,

मैं हिंदु हूँ, इसे अंडरलाइन समझे,

मैं हिंदू हूँ। इसे अंडरलाइन समझें,

हर धर्म में एक बलात्कारी होता, एक संत। एक किलर है, एक सेवर। हर धर्म में कुछ शाकाहारी होते हैं, कुछ मांसाहारी। हर वर्ग में कुछ सभ्य है, कुछ ज़ाहिल।  समस्त गुणों और अवगुणों से मिलकर एक समूह का निर्माण होता है। कई संस्कृतियों से मिलकर एक समाज बनता। बहुत सी सभ्यताओं और मान्यताओं की कोख़ से धर्म का जन्म होता है। इसलिए किसी एक मनुष्य के गुनाह के लिए पूरे धर्म, पूरी संस्कृति या सभ्यता को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। कतई नहीं।

हालांकि जब एक वर्ग, जाति, समूह या धर्म के लोग किसी एक ही अपराध को बार- बार दोहराएं तो वे गुनहगार हैं और जिम्मेदार भी। चोरी कर पेट भरने वाली कंजर जाति, पीटने के काम को मेहनत कहकर लूटने वाले आदिवासी समुदाय का एक हिस्सा और पूरी दुनिया में ज़ेहाद के नाम पर आतंक फैलाने वाले मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा इसका उदाहरण है।

इस वक़्त देश के कुछ लोग एक सिलेक्टिव पॉलिटिकल एजेंडे के शिकार हैं, ख़ास बात है कि उन्हें पता ही नहीं है कि वे इस एजेंडे के शिकार हो रहे हैं। जस्टिस फ़ॉर आसिफा ट्रोल हो रहा है। अपनी आत्मा के पास चिपकी हुई तख्तियों पर उन्होंने लिखा है '' मैं हिंदुस्तान हूँ और मैं शर्मसार हूँ।''

वे हिंदुस्तान और हिंदू होने पर शर्मसार हैं। क्योंकि कठुआ बलात्कार प्रकरण की चार्जशीट में आरोपी को हिंदू, घटनास्थल को मंदिर और पीड़ित को मुस्लिम लिखा गया है। चार्जशीट में खासतौर से अंडरलाइन किए गए इन तीन शब्दों से यह सनातन शैली खंडित, अपवित्र हो गई। उनके पूर्वजों का रक्त बदल गया, अब वे अपने माँ- बाप बदलना चाहते है और अब वे हिंदू नहीं रहना चाहते हैं। क्योंकि वे शर्मसार है।

अब मैं लिखता हूँ- मैं हिंदुस्तान हूँ, मुझे गर्व है। अगर आप शर्मसार है और गर्व करना चाहते हैं तो मुस्लिम धर्म अपना लें या ईसाई बन जाए या कुछ और जो आप चाहे। (इसे अंडरलाइन समझें)

हिंदू अपने पूरे जीवन में आत्मचिंतन की प्रक्रिया से गुजरता है। वह पश्चाताप करता है। आत्मचिंतन और पश्चाताप की यही प्रक्रिया उसे और ज़्यादा उदार बनाती है। जब कोई चींटी उसकी भोजन की थाली की तरफ बढ़ती है तो वह उसे धकेल देता है, इस प्रक्रिया में उसकी उंगलियों से चींटी मर जाती है। इस हत्या के लिए वह खुद को गुनहगार मानकर अपनी आत्मा पर एक तख्ती टांग लेता है। जिस पर लिखा होता है आत्मचिंतन और पश्चाताप। यहां तक ठीक है, लेकिन कुछ मूर्ख हिंदू स्वयं की आलोचना को इतनी दूर तक ले जाते हैं कि वे अपनी तख्तियों पर लिख देते हैं कि मैं हिंदुस्तान हूँ और हिंदू होने पर शर्मसार हूँ।

इस तरह एक सनातन जीवनशैली, पद्धति और सभ्यता कुछ मूर्खों की वजह से अपवित्र और खंडित हो जाती है। क्योंकि इस शैली से जीने वाले कुछ लोग एक खासतौर के प्रोजेक्टेड और सिलेक्टिव पॉलिटिकल एजेंडे के शिकार हैं। वे छाती पर तख़्ती और हाथ में कैंडल लेकर अपने ही हिंदू होने का मातम मानते हैं।

इस वक़्त, इस महामूर्खता के बीच सबकुछ खण्ड- खण्ड होने की प्रक्रिया में भी मैं हिंदू हूँ और गर्वित हूँ। इसे अंडरलाइन समझें।

#औघटघाट